Tuesday, August 30, 2011

Vidyapati Geet (Thumri) - Kunj Bhavan Se - Bidur Mallik (Nightingale of Mithila)


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कुंज-भवन सएँ निकसलि रे, रोकल गिरधारी |

एकहि नगर बसु माधब हे, जनि करू बटमारी ||


अरे! छाड़ कन्हैय्या मोर आँचर रे, फाटत नव-साड़ी |

अपजस होयत जगत भरि रे, जनि करिअ उघारी ||


दामिनी आए तुलाएलि रे, एक राति अँधारी |

संगक सखि अगुआइलि रे, हम एकसरि नारी ||


भनहि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी |

हरिक संग किछु डर नहि रे, तुं तs परम गमारी ||


शब्दार्थ:

सएँ = से

निकसलि = निकली

रोकल = रोकना

बसु = रहते हो

बटमारी = डकैती, राहजनी

उघारी = नग्न

संगक = साथ की

अगुआइलि = आगे गई

एकसरि = अकेली

दामिनी आए तुलाएलि = बिजली भी चमकने लगी, मेघ छा गए

अँधारी = अँधेरा, कृषणपक्ष की

हरिक = श्रीकृषण के,

गमारी = गँवार, निर्बुद्धि |


भावार्थ: राधा के कुंज भवन से बाहर होते ही कृषण ने उन्हें रोक लिया, राधा कहती है, है कृषण ! एक ही गाँव में बसकर इस प्रकार राहजनी नहि करो |


है कृषण ! मेरा आँचल छोड़ दो, मेरी नई साड़ी फट जाएगी और संसार भर में अपजस होगा (मुझे भी और तुम्हे भी | मुझे बेपर्दा मत करो | मेरे साथ की सखियाँ
आगे बढ़ गयी हैं, और में अकेली स्त्री हूँ - अकेली हूँ और स्त्री हूँ उसपर आकाश में बिजली भी चमक रही है और रात भी अँधेरी है |

विद्यापति कवी कहते हैं या गाते हैं, कि है गुणवती नारी, सुनो ! भगवान् कृषण के साथ तुम्हे कुछ भी डर नहीं है, तुम परम अज्ञानी हो, जो भगवन कृषण के
साथ रहने पर भी डरती हो |
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|| हवा के संग रहना
मोजों के साथ चलना
जिन्दगी कुछ ऐसी हो के
जिन्दगी के हर रंग में रंगना ||

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