Vidyapati Geet (Thumri) - Kunj Bhavan Se - Bidur Mallik (Nightingale of Mithila)
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कुंज-भवन सएँ निकसलि रे, रोकल गिरधारी |
एकहि नगर बसु माधब हे, जनि करू बटमारी ||
अरे! छाड़ कन्हैय्या मोर आँचर रे, फाटत नव-साड़ी |
अपजस होयत जगत भरि रे, जनि करिअ उघारी ||
दामिनी आए तुलाएलि रे, एक राति अँधारी |
संगक सखि अगुआइलि रे, हम एकसरि नारी ||
भनहि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी |
हरिक संग किछु डर नहि रे, तुं तs परम गमारी ||
शब्दार्थ:
सएँ = से
निकसलि = निकली
रोकल = रोकना
बसु = रहते हो
बटमारी = डकैती, राहजनी
उघारी = नग्न
संगक = साथ की
अगुआइलि = आगे गई
एकसरि = अकेली
दामिनी आए तुलाएलि = बिजली भी चमकने लगी, मेघ छा गए
अँधारी = अँधेरा, कृषणपक्ष की
हरिक = श्रीकृषण के,
गमारी = गँवार, निर्बुद्धि |
भावार्थ: राधा के कुंज भवन से बाहर होते ही कृषण ने उन्हें रोक लिया, राधा कहती है, है कृषण ! एक ही गाँव में बसकर इस प्रकार राहजनी नहि करो |
है कृषण ! मेरा आँचल छोड़ दो, मेरी नई साड़ी फट जाएगी और संसार भर में अपजस होगा (मुझे भी और तुम्हे भी | मुझे बेपर्दा मत करो | मेरे साथ की सखियाँ आगे बढ़ गयी हैं, और में अकेली स्त्री हूँ - अकेली हूँ और स्त्री हूँ उसपर आकाश में बिजली भी चमक रही है और रात भी अँधेरी है |
विद्यापति कवी कहते हैं या गाते हैं, कि है गुणवती नारी, सुनो ! भगवान् कृषण के साथ तुम्हे कुछ भी डर नहीं है, तुम परम अज्ञानी हो, जो भगवन कृषण के साथ रहने पर भी डरती हो |
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